मेरे प्यारे पापा
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( द्रर्शिता व ऊस के पापा का चित्र )
द्रर्शिता बाबुभाई शाह
संपादन – अनिता तन्ना
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मेरे प्यारे पापा
द्रर्शिता बाबुभाई शाह
संपादन – अनिता तन्ना
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द्रर्शिता बाबुभाई शाह के काव्य संग्रह
आरजु
कशिश
अस्तित्व
परस्पर
अस्तित्व
( ब्रेईल तीपी में )
परस्पर
( मुखपृष्ठ )
शीर्षक
मेरे प्यारे पापा
तपस्वी
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( द्रर्शिता व ऊस के पापा का चित्र )
द्रर्शिता बाबुभाई शाह
संपादन – अनिता तन्ना
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मेरे प्यारे पापा
द्रर्शिता बाबुभाई शाह
( संपादन – अनिता तन्ना )
अनुवादक महेश सोनी )
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द्रर्शिता बाबुभाई शाह के काव्य संग्रह
आरजु , कशिश , अस्तित्व ,आरजु
कशिश
अस्तित्व
परस्पर
ब्रेईल तीपी में परस्पर
पापा का साथ
गुजराती भाषा में दो कहावते हैं जो बेटियो के बारे में दो परस्पर विरोधी विचारो को पेश करती है I एक कहावत है दिकरी वहालनो दरियो यानि वेटी प्यार का सागरः दूसरी है दीकरी सापनो भारो यानि वेटी वहुत वडा बोज I हमारा समाज ईन दोनो मान्यताओ के वीच में जोला खा रहा है I एक तरफ जीवन के विविध क्षेत्रों में वेटिया आगे बढ रही है I रोज नयी सफलताएं हासिल कर रही है I तो दूसरी तरफ भूण हत्याएं भी हो रही है I सरकार तथा समाज की कई संस्थाएं बेटी बचाओ-बेटी पढाओ का अभियान भी चला रही है I
ये कहानी एक गौरवशाली वेटी के प्रतिबध्ध पिता कि है I एक एसे पिता के संघर्ष की दास्तान है I जिन्होने अनेकोनेक तूफानो से लडकर अपनी बेटी न सिर्फ भरपूर प्यार किया बल्कि ईस योग्य भी बन्या I बेटी खुद तूफानो से टकराकर जीत भी सके I आज से पचास साल पहेले के दौर में तीसरी संतान दिव्यांग कन्या रे रुप में जन्म ले I तब माता-पिता की मनःस्थिति कैसी हुई होगी ? माता-पिता ने उस के लालन-पालन के लिये कैसा कैसी परिस्थितीयों से गुजरना पडा होगा? वे भगवान को दोष दे या नसीब को टेढा कहे? लेकिन बाबुभाई और मीनाक्षीबहनने ऐसा कुछ नहीं किया I उन्होने अपनी दिव्यांग बेटी को उत्तमोत्तम तरीके से लालन-पालन किया I पैरो से न चलनेवाली बेटी को ईतने मजबूत पंख दिये की बेटी आसमान छू सकने लायक बऩी I
वो बेटी यानी दर्शिता बाबुभाई शाहः जो आज न सिर्फ अहमदाबाद, गुजरात बल्कि पूरे भारत का गौरव है I दर्शिता एसी दिव्यांग महिला है I उन्होने सबसे ब्यादा एज्युकेशनल डिग्रिया प्राप्त की हैं I उनका विकलांग होना उनके लिये कभी बाधक नहीं बना I ईसका मुख्य कारण ये है कि उनका लालन-पालन ही ईस तरीके से किया गया है I उनके जीवन को सींचते समय ईस बात का खास ख्याल रखा गया है कि वे आत्मनिर्भर रह सकें I आज के दौर में महिला सशक्तिकरण की बातें बहुत होती है I एसे में दर्शिता के माता-पिता ने दर्शिता के लालन-पालन को एक उदाहरण के रुपमें प्रस्तृत किया है I दर्शिता का जीवन समग्र दिव्यांग समाज के लिए उत्तम उदाहरण है I
दर्शिता ईस पुस्तिका द्वारा समाज को ये संदेशा देना चाहती है कि उन्होंने आज तक जो कुछ भी हासिल किया है I उस में उनके माता-पिता का योगदान अनमोल है I में एक पत्रकार के रूप में जब उनसे मीली तो पाया कि वो एकदम जिंदादिल व्यक्तित्व है I हमेशा सक्रिय रहेनेवाली व्यक्ति हैं I वे खुद तो व्यस्त रहती हैः साथ में उन के साथ जुडे हुए लोगो को भी लगातार व्यस्त रखती हे I वे समय की पाबंद है I कार्य में पूर्णता की आग्रही है I हमेशा कुछ नया कुछ अलग करना चाहती है I बाबुभाई तो पिता का कर्तव्य बजा ही रहे है I दुसरी और दर्शिताने भी उनके पितृत्व का सम्मान बढाया है I आज भी बढा रही है I
ईस पुस्तिका में पिता द्वारा खेले गये युध्ध की दास्तान है I वो युध्ध जो कुदरत के विरुध्ध खेला गया पिताने नसीब को दोष नहीं दिया I नसीब को ही बदलने में जुट गयेः और एक दिन विजय श्री प्राप्त की I एक पिता की ईस जीतमें सबलोग सहभागी बने I ईसलिए दर्शिताने ये पुस्तिका लिखी है I यूं भी दर्शिता को अकेला रहना अच्छा नहीं लगता I वो हमेशा दो-चार व्यक्तियों के साथ उठना बैठना चाहती है I
दर्शिता अपने अनुभवों के सहारे अपने जैसे अन्य दिव्यांगो को मदद कर रही है I सलाम मीनाक्षीबहन को, बाबुभाई को और उनके कन्यारत्न दर्शिता शाह को
मुजे शतप्रतिशत विश्वास है कि यह पुस्तक दिव्यांग संतोनो तथा उनके माता-पिता के लिये प्रेरणारूप और मार्गदर्शिका बनेगी I
अनिता तन्ना
Anitatanna98@gmail.com
मेरे प्यारे पापा
2 फरवरी 2016 के दिन, मैं हमेशा की तरह अपंग मानव मंडल में मेरा कार्य कर रही थी I एक महिला मुजसे मिलने के लिए आई I मुजे देखकर उन्होंने आश्रर्य सहित पूछा आप घर से यहाँ तक कैसे आती हैं ? मैंमे सहजता से उत्तर दिया पापा, छोड जाते हैं I सुनकर उनकी आंखोमें आश्चर्य और बढ गया I उन्होंने फिर पूछा अभीतक आपके पिता आपको छेडने के लिये आते है? दरअसल मेरे जैसी दिव्यांग बेची के लालन-पालन करने में मेरे पिता का जो योगदान हैI उसे हजारो जन्मो में भी भुला नहीं सकतीI चुका नहीं सकती ऐसा ऋण है वो I कई डोकटर और फिजियोथेरापीस्ट मुजे देखकर पूछते हैं कि आपकी उम्र क्या है? में कहती हुँ 50 साल तो उन्हे आश्चर्य होता है I सामान्यतया ऐसा होता है कि दिव्यांग व्यक्ति 35 वर्ष के आसपास की आयु में बिस्तर पकड लेते हैं I मेरे जीवंत व्यक्तित्व के लिए ऐसा कहा जा सकता है कि मेरा शरीर सिर्फ साँस लेने का कार्य सरता है I मेरे शरीर के बाकी अंगो का कार्य संचालन मेरे परिवारजन, म्त्र एवं शुभेच्छको द्वारा होता है I आज मैं आयु के अंदाजन 52-53 वर्ष पूरे कर चुकी हूँ I मगर मुजे लगता है में पाँच साल की छोटी सी बच्ची हूँ I जो मेरे अपने है I उनके प्यार, भावना में कहीं कोई कमी नहीं आई है I बल्की बढोतरी हुई है I
आज जब पापा के बारे में लिखने के लिये बैठी हूँ I तब सब से पहला विचार ये आ रहा है कि माता-पिता के त्याग और योगदान के बारे में सोचने के लिये एक नहीं I कई जन्मो का समय चाहिए I फिर भी पता नहीं हम सही मूल्यांकन कर सके या नहीं I आज तक माता-पिता के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है I हालांकि जितनी महिमा माता की गाई गई है I उस के मपकाबले पिता के बारे में बहुत कम लिखा या कहा गया है I
मेरे पापा का नाम बाबुभाई चुनीलाल शाह है I वे गुजरात के साबरकांठा जिल्ले का मोडासा गाँव के वतनी है I गाँव में वैष्णव, बनिये और दशा पोरवाड ज्ञाति के लोगो की जनसंख्या अच्छी खासी थी च है I गाँव अदरख एवं रतालु के लिये पहचाना जाता है I मोडासा के ईलाके गांधीवाडा में मेरे दादा का घर था I दादा पक्के वैष्णव थे I परिवारमें श्रीनाथजी की सेवा वंश-परंपरागत होती आ रही थी I दादा के घर का नाम भी गोकुल निवास था I मोडासा के वैष्णव परिवारो में चुनीलाल देवचंद शाह तथा समतबहन शाह का परिवार एक प्रतिष्ठित परिवार था I गाँव के वैष्णव परिवार उन से सलाह लिया करते थे I ईस धार्मिक एवं संस्कारी दंपति के धर में तीन बेटे व चार बेटियोने जन्म लिया I उन भाई-बहेनो में मेरे पिता बाबुभाई दूसरे नंबर की संतान थे I 16 जुलाई-1932 के दिन मेरे पिता का जन्म हुआ I मोडासा में मेरे दादा की गवार गम की फेकटरी थी I वे गवार गम निर्यात करते थे I उस जमाने में भी मेरी दादी दादा को व्यवसाय में मदद करते थे I मेरे दादा का व्यवसाय अच्छा खासा फैला हुआ थाI मेरी दादी हमें कहती थी कि बनियों को धार्मिक संस्कार के साथ साथ व्यापारिक सूझ-बूझ भगवान की देन होती है I जो उसके खून में रची बसी होती है I
उस समय शिक्षा के प्रति इतनी जागृति नहीं थी I इसके बावजूद दादाने अपने सातो संतानो को शिक्षा दिलवाई थी I मेरे पापा सातवीं कक्षा तक मोडासा में ही पढे थे I फिर वो अहमदाबाद आये I मेरे पापा के बडे भाई पहले ही अहमदाबाद में आ चुके थे I दोनो भाई साथ रहकर पढे I बारवीं कक्षा के बाद पापाने एम.बी.सायन्स कोलेजमें दाखिला लिया I पापा को बचपन से ही खेल-कूद का शौक था I वे ज्यों ज्यों बडे होते गये I अन्य खेलो की तरफ भी आकर्षित हुयेऩ क्रिकेट व बेडमिन्टन उनके पसंदीदा खेल है I वे यो दोनो खेल खेलते भी थे I न सिर्फ खेलते थे बल्की कुशलतापूर्वक खेलते थे I
उस दौर में अहमदावाद की गुजरात कोलेज नौजवानों की पसंदीदा कोलेज थी I वहाँ शिक्षा का स्तर भी वहुत अच्छा था I खेलकूदमें रुचि रखनेवाले नौजवानों को प्रवेश के समय प्राथमिकता दी जाती थी I मेरे पिताने स्नातक का पहला वर्ष पूरा करने के बाद गुजरात कोलेजमें दाखिला लिया था I विज्ञान के विषयमें स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद व्यापारमें जुट गये I दादा चुनीलाल प्रामाणिक व निष्ठावान थे I पिताजी में भी दादाजी के गुण थे I पापाने फैसला किया कि वे कहीं भी नौकरी नहीं करेंगे I इस निर्णय के बाद पापाने व्यापार शरु किया I उन के इस संकल्प के पीछे परिश्रम की इच्छा तथा निषठा थे I मेरे पापा रंग से थोडे से श्याम तथा उंचे एवं मजबूत कदकाठी के सामान्य से दिखते व्यक्ति हैं I हालांकि सामान्य दिख रहे व्यक्ति में एक असामान्य व्यक्तित्व छुपा हुआ है I
मेरे पापा की शादी 1959 में मुंबई के मीनाक्षीबहन के साथ हुई I आज मेने जब आयुष्य के पांच दशक पूरे कर लियो हैः तब एक विचार आता है I मुजे इनके बदले कोई और व्यक्ति पापा के रुपमें मिले होतो तो ?
में जब वर्तमानपत्रों , सामयिको और टीवी सिरीयल या हिन्ही फील्मोंमें बेटीयों की व्यथा को देखती हुँ I तब मुजे लगता है I इन सबकी तुलनामैं मैं कितनी खुशनसीब हुँ I माँ को तो उसकी हर एक संतान प्यारी आंख की दुलारी होती है I एक समान हौती ङै I लेकीन पापा के लिये बेटी बेटी नहीं बल्कि कलेजे का टुकडा होती है I ये कहावत मेरे जीवन में शत-प्रतिशत सच साबित हुई है I मेरे पापाने मुजे अनमोल रतन की तरह संभाला हैः बहुत ही जतन से लालन-पालन किया है I भारत जैसे प्रगतिशील देशनें जहाँ कई लोग बेटियों को कोख में ही खतम कर देते हैंऩ मेरे पापाने मुझेः एक दिव्यांग बच्ची को कोहीनूर जितने जतन से संभाला है I
जब मेरा जन्म हुआ I मेरे पापा की आँख में खुशी के आँसु आए थे I उनके ह्वदय से उदगार निकले थे मेरे धर लक्ष्मी आई है I वो दिन 9 नवंबर 1965 का पापाने कहा था इस लक्ष्मी को बडे जतन से रखुंगा I उनहोंने जो कहा वो किया भी
इस्वीसन १९६५ से २०१६ इन ५० वर्षो में एक भी दिन ऐसा नहीं था । जब पापा-मम्मी में मुजे खुद से जुदा या अलग किया हो । मुजे देखकर दादीमाँने कहा था इस सुंदर फूल को संभालना पडेगा ।
वरना इसे किसी की नजर लग सकती है । हुआ भी ऐसा ही । जब मैं आठ महीनों की थी ।
मेरे हाथ की बगल में.........हुआ । मुजे डाक्टर के पास ले गये । की चीरा मारने कू जरुरत थी । उस वजह से मुजे बुखार भी आया । इस सारे घटना क्रममें मुजे पोलियो की दवाई पीलानी रह गई । पापा के कहे अनुसार उस समय पोलियो की दवाई पीलाने के लिये सरकार और समाज दोनो ही इतने जागृत नहीं थे ।
कमनसीबी से दादीमाँ की बात सच साबित हुई । एक दिन सुबह मम्मीने मुझे झुले में सुलाया । कुछ घंटो बाद जब म्म्मीने मुजे गोद में उठाया तो उनके दोश गुम हो गये । मेरा शरीर जैसे लाश बन गया था सिर्फ सांस चन रही थी । शारिरीक हलनचलन नहीं के बराबर थी । मम्मी डर गई कि ये क्या हुआ ? उस जमाने में मोबाईल की सुविधा भी नहीं थी कि झटपट पापा रो इस गंभीर स्थिति के बारे में बता सके । किसी तरह पापा तक खबर पहुँचाई गई । एक भी पल गंवाये बगैर वो घर पहुँचे । मुजे देखकर उनका ह्वदय जैसे एक धडकन भूल गया । बहरहाल उन्होंने खुद को नियंत्रित किया । मुझे लेकर डोँ.ढोलकिया पास गये । र्डाकटरने जाँच करने के बाद कहा इसे पोलियो में से बाल-लकवा हुआ है ।
बेटी को पोलियो ? पोलियो शब्द सुनकर मम्मी-पापा के पैरो तले से जमीन खिसकने लगी। उन पर जैसे आसमान टूट पडा था। भगवानने जैसे उनके साथ खेल खेला था । मुजे उनके स्पेशियल चाईल्ड का सपना मिला ।
कहाँ जाए ? क्या करे ? उन्हे कुछ भी नहीं सुझ रहा था । लेकिन दोनोने संजोगों लडने की तैयारी कर ली । डाकटरने कहा था अगर आप बेटी को जिंदा रखना चाहते हैं तो सबसे पहेले आपको हिंमत रखनी पडेगी ।
वो पल उनकी अग्निपरीक्षा के पल थे । मम्मी पापामे द्रढ मनोबलसे डोकटर को कहा हमारी बेटी के लालन-पालन में हम कसर नहीं छोडेंगे । उसे जीवन मिल सके इसलिये हम हर संभव बल्कि असंभव को संभव बनाने का प्रयास करेंगे । मुजे जिंदा रखना आसान नहीं था । वो एक तरह से असंभव को संभव बनाने का ही कार्य था ।
घडी घडी मुझे पानी पिलाना, मेरे मल-मूत्र साफ करना, मुजे खाना खिलाना, नींद ले रही होउ तब करवट बदलना । मम्मी-पापा रात को मुझे अपने पास ही सुलाते । नींद में करवट बदलने का काम ज्यातर पापा ही करते थे । इस के अलावा रोज व्यायाम करवाना ।
मेरे पापा के लिये में यानि बेटी भगवान मिलने के बराबर थी । मुजे याद नहीं आता की मेरे जन्म के बाद पापा ज्यादा दफा भगवान के दर्शन करने के लिये गये हो। अगर गये भी तो मेरे स्वास्थय की प्रार्थना करने के लिये गये है। वे हंमेशा मुजे कहते है तू ही मेरा भगवान है ।
मैं 1966 में पोलियो का शिकार बनी थी । तब अहमदावाद या किसी अन्य स्थान पर पोलियो की दाक्तरी इलाझ के लिये ज्यादा सुविधायें उपलब्झ नहीं थी । उस समय आधुनिक टेकनोलोजी एक स्वप्न के बराबर थी । इलाझ के लिये मर्यादित संसाधन एवं विकल्प थे । लक्ष्मीदेवी भी इतनी प्रसन्न नहीं हुई थी कि मेरा इलाज अगर खर्चीला हो तो हो सके। मुजे मेरा इलाज हो सके इसलिये पापा मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, हर जगह गये। श्रध्धा से सर झुकाया। किसी के कहने पर पापा मुजे अजमेर शरीफ नवाज की दरगाह पर भी ले गये थे। मगर बाल लकवे से ग्रसित बेटी को ठीक करना सामान्य बात नहीं थीः बल्कि लोहे के चने चबाने से ज्यादा मुश्किल काम था।
पापा-मम्मीमे वो सबकुछ किया जो र्डोक्टरों की सुचनानुसार फिझीयोथेरापी की कसरत शुरु कर दी। र्डो.स्नेहलत्ता मोदी और र्डो.नटुभाई का फिजियोथेरापी केन्द्र था। मुजे रोजाना वहाँ कसरत के लिये लेकर जाना पडता था। स्वाभाविक था कि पापा अपने व्यवसाय में व्यस्त थे। मेरी मम्मीने मेरे पालन-पोषण, सेवा का जैसे की व्रत ले लिया था। मम्मी मुंबई की थी। उस जमाने में उसने अंग्रेजी भाषामें स्नातक की डिग्री हासिल की थी। मम्मी शादी के बाद अहमदाबाद में सरकार के खेतीवाडी विभागमें अधिकारी की जिम्मेदारीयों का वहन करती थी। मेरी मम्मीने मेरे जन्म के कुछ समय बाद तक नोकरी की थी। पोलियो होने के बाद पिता को लगा की मेरी देखभाल करने के लिये मम्मी का हर समय मेरे पास रहना जरुरी है। मम्मी को भी यह महसूस हुआ नोकरी से ज्यादा महत्वपूर्ण है बेटी को सभालना। हालाकी उस वक्त परिवार को पैसो की भी जरुरत ज्यादा है। मम्मी सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देकर पूर्ण समय की माँ बन गई। मम्मीने अपने आप को एक दिव्यांग बेटी को समर्पित कर दिया। वो जमाना वाहन व्यवहार के मर्यादित साधनो का था। लाल बस यानि ए.एम.टी.एस मुसाफरी के लिये सर्वोत्तम विकल्प था। उस समय हम मणीनगर में रहते थे। मम्मी मुजे लेकर मणिनगर से टाउनहोल तक ए.एम.टी.एस से आती थी।
मैं जब दो वर्ष की हुईः तब मेरे शरीर में जहाँ जहाँ जोड थे। वहाँ कुत्रिम जोड लगाये गये। मेरे शरीर में जो जोड लगाये गये । वो विदेश से मंगवाये गये थे। उस समय तक पापा का व्यवसाय भी पूरी तरह जमा नहीं था। कई बार आर्थिक तंगी की समस्या सामने आ जाती थी एक बार ओपरेशन के समय पैसे की व्यवस्था नहीं थी। इस के बावजूद पापने एक मित्र के पास उधार पैसे लेकर भी मेरा इलाज करवाया था। वो इलाज महँगा भी था। र्डो.फोजदार जो स जमाने में अहमदावाद के जानेमाने र्डोकटर थे। उनहोने ओपरेशन किये थे। ओपरेशन से इतना फायदा हुआ था कि मेरा पेट फुलना बंद हो गया था। उस से पहले ये होता था कि जब मैं रोती थी। तब मेरा पेट फुलने लगता था। जो ओपरेशन के बाद बंद हो गया।
कसरत मेरे शरीर के लिये उपयोगी थी। लेकिन मेरे मन को भी तो स्वस्थ करना जरुरी था। मम्मी-पापा ने सोचा कि आयु के मुताबिक मुजे शिक्षा भी मिलनी चाहिये। पिताने पाठशाला में मेरा दाखिला करवा दिया। मणिनगर में स्थित बेस्ट स्कुल मेरी पहली पाठशालाः उसके बाद नारणपुरा इलाके की संघवी हाईस्कुल में दाखिला करवाया गया । पिता मेरे अभ्यास में कमी रखना नहीं चाहते थे। र्डोकटर का सर्टिफिकेट पेश करके मुजे मुजे पाठशाला में दाखिला दिलवाया गया। पाठशाला के आचार्य ने भी बहुत सहयोग दिया। मेरी शारिरीक मर्यादाओ को ध्यानमें रखकर मुजे कुछ सुविधाएं दी। मेरा ध्यान रखने के लिये एक महिला को रखा गया था। पाठशाला के आचार्य से छूट दी होने के बावजूद मैं कोशिश करती थी कि समय की पाबंद रहुं। मेरे पिता तो मुजे शिक्षा दिलाने के लिये इरादा बना ही चुके थे। मेरे कमजोर पैरो ने मेरे मन को शिक्षा हासिल करने के लिये प्रेरणा दी थी।
मेरे मम्मी-पापा ने मुजे नवजीवन देने के लिये कमर कस ली थी। रोज चार घंटो के लिये मुजे कसरत के लिये ले जाना। घर में अभ्यास भी करवाना और कसरत भी इस रतह से करवानी की मेरे हाथो या पैरों को कशान न पहुंचे। मेरे पापा ने स्टील का एक ऐसा ढांचा बनवाया। जिस में वे मुजे सुला देते या उस में खडी करके बाँध देते थे। दो घंटे तक कुर्शी में भी बाँध देते थे। कुर्शी से इसलियो बांधते थे कि मैं बैठना सीखुं। लेकिन शरीर में पोलियो की असर ज्यादा थी। शरुआत में तो मेरी स्थिती लाश जेसी थी। ऐसा लगता थाः मेरे शरीर के अंगोने हलन-चलन करने के विरुध्ध सत्याग्रह नहीं बल्कि ङठाग्रह किया है। कोई भी अंग सही ढंग से क्रियान्वित हो नहीं रहा था। मम्मी-पापा और भाई-बहन मेरे शरीर को चेतनशील करने के लिये लगातार प्रयत्न करने लगे। सब के प्रयासो के समक्ष पोलियो जरा नरम पडा। र्डोकटर कहते थे कि मुजे जीवनभर कसरत करनी होगी। मेरा पिता अनथक परिश्रम कर रहे थे। वे अपना व्यवसाय कर कर रहे थे। चमडे का कारखाना चला रहे थे। वो कारखाना उन्होने तीन वर्ष तक चलाया। दिन रात देखे बगैर परिश्रम किया। मुजे याद है। पापा करीब 19-20 घंटे तक कार्य करते थे। दूसरी और मुजे हुआ पोलियो इतना प्रभावी था कि मुजे बोलने में भी तकलीफ होती थी। में मेरे फेफडो में हवा भर नहीं पाती थी। पापा मेरे लिये रेडियो लाये। ये सोचकर की रेडियो सुनकर मैं बोलना व गाना सीख सकूँ। इस तरह मेरे लालन-पालन में छोटी से छोटी बात का खयाल रखा गया था।
चमडे के व्यापार के कारण पाप को नई दिशा मीली। पापाने रंगो का व्यवसाय किया। मेरे पापा आत्मविश्वास से भरपूर थे। पथ्थर में से पानी निकालने की क्षमता रखते थे। उस जमाने में कपडे का उद्योग चरमशीमा पर था। अहमदाबाद भारत का मान्चेस्टर माना जाता था। पापाने रंगों की डाई बनाने का कार्य सुरु किया। उस समय की एक प्रख्यात कंपनी खटाउ कंपनी की एजन्सी पापा को मिली थी। उस जमाने में पापा के पास सायकल थी। वो भी 300/-रुपये कुसीसे उदार लेकर खरीदी थी। पापा व्ववसाय करने के लिये सायकल पर अहमदाबाद के इलाकोमें घूमते थे। पापा द्वारा की गई। उस काली मजदुरी के दिनों को में भुलाये नहीं भूल सकती। पापाने कई वर्षो तक दोपहर का खाना घर पे नहीं खाया था। उन दिनों में पापा को व्यवसायिक उदेश्य से मुंबई, नागपुर, वडोदरा, सुरत, दिल्ली जाना पडता था। अहमदाबाद की करीब करीब सारी टेक्षटाईल मिलों में पाप रंग कप्लाय करते थे। रंगो के व्यवसायने पापा को पहचान रंगो के राजा की दी थी।
उस समय मुंबई की जयसिंध डायकेम कंपनी की एजन्सी भी पापा को मिली थी। पापा के मन में एक ही धुन थी। चाहे अनथक कोशिशें करनी पडेः लेकिन मेरी दिव्यांग बेची के लिये धन इकठ्ठा करना है। उसका लालन-पालन श्रेष्ठतम तरीकों से करना है। वे कहावत है ना कठोर परिश्रम का कोई विकल्प नहीं हैं। परमात्मा भी कठोर परिश्रम और प्रमाणिकता से किये गये कर्मो का फल अवश्य देता है।पापा का व्यवसाय फेलता गया। खटोर परिश्रम, व्यवसायिक सूझबूझ और परिवार को सुखी करने की लगन के कारण पापा भी व्यवसाय को विकसीत करते गये। व्यसाय भी तरक्की करता गया।
मैं जब पाँच वर्षो की थी। मुजे घुमाने ले जा सकेः इसलिये मुजे उठाकर ले जाना पडता था। पाठशाला में इम्तिहान देने के लिये, कसरत करवाने के लिये, घूमाने के लिये मुजे कंधो पर उठाकर ले जाना पडता था। कार के आने से बहुत से कार्य सरल हो गये। पापा रोज मुजे घूमाने के लिये कार में लेकर जाते थे।
संजोगो या विपरीत परिस्थितीयों के सामने पापाने कभी हार मानी नहीं है। यूं समझिये मेरे लिये उन्होंने कुदरत से युध्ध छेडा था। उस युध्ध में मेरी मम्मी तथा घर के अन्य सदस्य पापा के साथ थे।
थोडा समय गुजरने के बाद मैं बैठाना सीखी । थोडी देर बैठ सकती थी। स्वाभाविक था कि माता-पिता मेरे प्रति थोडा नरम थे। हालांकि उन्होंने इस बात का या कहो के खतरे का ध्यान रखा था। उन का नरम रवैया मेरी कमजोरी न बन जाये। में रोजमरा के कार्य खुद कर सकूः वो भी जरुरी था। एक सिक्के के दो पहजू की तरह उन का प्यार और सख्ती दोनों ही मेरे हितार्थ थे। ये भी जरुरी था कि मैं स्वनिर्भर बनुं। पापा का व्यक्तित्व हिमालय जैसा अडग मजबूत था। उस मजबूत व्यक्तित्व के भीतर एक ऐसा दिल भी धडकता था। जो भावसभर था। भावनाओं से भरपूर था।
पापा रोज रोज नये प्रयोग इसलिये करते थे कि चलना सीख सकूं । मैं जब आठ वर्, की थी। तब मुजे वो बूट पहनाकर खडी कर देते थे। इस तरह मैं खड़ा रहना ऐर चलना सीखी। वो बूट में अपने आप नहीं पहन सकती थी। पापा के कार्यो में वृध्धि हुई। मुजे बुट पहनाने और निकालने का कार्य बढ गया। लेकिन मुजे उनके चहेरे पर कभी भी थकान या उदासी या किसी तरह की नाराजगी के भाव दिखे नहीं। मैं जैसे जैसे बडी हो रही । मेरे इलाज का खर्च बढ रहा था। मेरे साथ मेरे भाई-बहन भी पढते थे। इस के अलावा सामाजिक व्यवहार भी निभाने होते थे। इन सब खर्चो को पूरा करने के लिये पापा व्यवसाय को दिन-ब-दिन फैलाते जा रहे थे। पापा व्यवसाय में व्यस्त होते जा रहे थे। इसके बावजूद, मैं उनकी प्राथमिकता थी। आज उनकी आयु 84 वर्ष की है। लेकिन आज उनकी प्राथमिकता मैं ही हुँ। पापा मेरा आज भी उतना ही खयाल रखते हैं। जितना उस वक्त रखते थे। हमेशा इस बात का खयाल रखते थे व है कि मुजे किसी बात का बुरा ना लगे।
घर में मेरी मम्मी की परछाई बवकर रहती थी। मुजे एक किस्सा खास तौर से याद आता हैं।
मैं जब आठ वर्षो की थी। मैने एक पहले स्नान करने के लिये जिद की थी। मम्मी किसी कार्य में व्यस्त थी। मम्मीने मुजे बाथरुम में बंद कर दिया। ये कहते हुए कि अपने आप नहा ले। मैं करीब दो घंटों तक बाथरुम में रही। आप जैसा स्नान कर सकती थी कर लिया। बादमें मम्मीने बाथरुम से निकाला और मूसलाधार रो पडी। ये भी कहा कि अब थोडा कार्य अपने आप करना सीख, मैं नहीं होउंगी तब कौन करेगा। मम्मी के सिर पर मेरे भाई-बहनो के लालन-पालन और अन्य पारिवारिक जिम्मेदारियां भी थी।
मेरी बडी बूआ प्रत्येक वर्ष कुछ समय के लिये हमारे यहाँ आती थी। मेरी बूआ के पुत्रोने हमारे यहाँ रहकर ही शिक्षा प्राप्त की है। वे हमारे यहां ही खाना खाते थे। मम्मी परिवार के क्सी शादी-ब्याह या शोक के प्रसंगो में जा नहीं सकती थी। जहाँ जाना अनिवार्य हो वहां मुजे साथ लेकर जाती गोद में उठाकर।
पापा व्यवसाय को संभालने के साथ साथ घर से बाहर के कार्यो में मेरा मजबूत आधार थे। मुजे पाठशाला तक ले जाना, वापस लेने आना। इम्तिहान दिलवाना, शारिरीक और मानसिक प्रगति के लिये जो भी संभव लगे । वो करना । इम्तिहान मेरे होते थे मगर परीक्षा पापा के धीरज की होती थी। इम्तिहान के लिये मैं लगातार तीन घंटे बैठ सकूः इसलिये मुजे कुर्सी से बाँध देते थे। जब तक मैं प्रश्र्नपत्र के सारे प्रश्र्नो के उत्तर न लिख लूं । तब तक पापा कक्षा के बाहर बैठते थे । मुजे कीसी चीज की जरुरत हो या कोई तकलीफ हो तो तुरंत मेरे पास आ जाते । मैं एसे इम्तिहान देती रही । अच्छे परीणाम देखकर मेरे और पापा के चेहरों पर रोनक आ जाती थी । एसी छोटी छोटी कामयाबीयाँ हमारे लिये बड़ा उत्सव बन जाती थी । उत्सव को मनाने के नशे में मेरी अक्षमताएं विघ्न पैदा नहीं कर सकी । मैं और मेरे पापा हमारे तय किये हुये पथ पर आगे बढते रहे । व्हिलचेर तो बहुत बाद में मेरे अस्तित्व का एक हिस्सा बनी । वर्षो तक मैं और मेरे पापा सिर्फ मेरे पापा के पैरों पर चले हैं ।
इस रतह गिरते,पडते फिर वापस खडे होकर चलते चलते दिन गुजरते गये ।
हमारा अब तक का समय हमारे मणिनगर के घर में बीता था । अब घर बदलने की जरुरत आन पडी थी । ज्यों ज्यों लक्ष्मी बढती है । आवश्यकता एं भी बढती है । यहां कारण दूसरा था । मैं बडी हो रही थी । मुजे घर के बाहर स्थित बाथरुम में नह्ने-धोने में तकलीफ पडने लगी थी । और मेरे पापा मुजे तकलीफ में नहीं देख सकते थे । मेरे साथ मेरी तीन और बहने भी थी । चार बेटियों के पिता को बेटियों के लिये एक सुव्यवस्थित घर चाहिये था । पापाने तुरत घर बदलने का निर्णय लिया । अहमदाबाद के ही नारणपुरा इलाके में बड़ा फ्लैट खरीदा । नये घर में बाथरुम घर के अंदर ही था । इसलिये मेरी तकलीफ थोडी कम हुई । हालांकि पोलियो के कारण मुजे उस बाथरुम में प्रवेश करने में थोडी तकलीफ होती थी । उस जमाने में भारत में दिव्यांगो को ख्याल में रखकर मकान या फ्लेट बनाने का सोचा ही नहीं जाता था । सार्वजनिक परिवहन के मामले में भी ऐसा ही था । शहर की स्थानीय बस सर्विस में एसी कोई व्यवस्थी नहीं होती थी । जिस से दिव्यांगो को बस में चढने या उतरने में आसानी रहे । कुल मिलाकर घर बदलने के बावजूद भी मेरी समस्या यथावत रही । हालांकि कुछ समय बाद मैंने परिस्थितीयो के अनुसार अपने आप को ढालना सीख लिया ।
र्डाक्टर की सलाह के अनुसार मेरे फेफडो का व्यायाम हो, फेफडे मजबूत बनेः और मुजे चलने में आसानी रहेः के उदेश्य से तैरने की प्रवृतियां करवाने में मम्मी-पापा का अच्छा खासा समय बीत जाता था । इन सारी प्रवृत्तिओं को करने में पापा-मम्मी के साथ मेरे भाई-बहन भी मदद करते थे ।
पापा घूमने-फिरने के शौकीन है । वे अपने व्यवसायिक कारणो से तो शहर से बाहर जाते ही थे । हमें छुटियों में घूमने के लिये ले जाते थे । मेरी शारिरीक मर्यादाएं कभी हम लोगों की मुसाफरी में बाधा नहीं बनी है । वो हमेशा खुशमिजाज रहते हैं । हम सब सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, दक्षिण भारत, राजस्थान वगैरह स्थानो पर घूमकर आये है ऩ हम घूमे भी पापा की कार में ही हैं । जब हम सफर में होते थेः पापा हमेशा इस बात का ध्यान रखते थे कि मुजे किसी बात का बुरा ना लगे । कोई सुविधा कम ना मिलेः या किसी और तरह की कमी महसूस न हो । जब हम घूमने के लिये जाते है तो होटल के कमरे थोडे ही बडे ही रहते हैं । पापा पहले ही से सुचना दे देते थे आप सब घूमने जाओ, मैं दर्शिता के पास ही रहूंगा । वे मेरे साथ होटल के रुम में ही ठहरते । सफर के दौरान पापा के बनाये एक और नियम का पालन होता था । सुबह का चाय-नास्ता, दोनों समय का खाना सब को एक साथ रुम में ही करना है । इस की वजब थी । वो यह की मैं व्हीलचेर पर होने की वजह से शायद सब जगह न जा सकूं या पहुंच सकूं । और लोग तो खाने की जगह तक पहुंच जाये । में शायद अकेली पड जाउं । पापा ने यूं हर छोटी से छोटी बात में मेरी चिंता-फिक्र की है ।
पापा मुजे अहमदावाद में भी मूवी देखने के लिये, बगीचे में घूमने के लिये, देखने लायक काई स्थान जो एतिहासिक होः तो लेकर जाते थे । आज भी जब कभी रेस्टोरन्ट में खाना खाने जाना हो तो मुजे छोडकर कोई नहीं जाता । मैं मगर जाने के लिये मना करदूं तो पापा तुरंत कहते हैं आप सब जाईये । मैं ऐर दर्शिता खीचडी बनाकर खाना खा लेंगे । कभी कभी मैं सोचती हूं कि पापा कहीं अन्जाने में में भी अपनी दूसरी संतानो को अन्याय तो नहीं कर रहे हैं । मेरा इतना ज्यादा झ्यान रखनाः मेरे भाई-बहेनो के प्रति अन्याय का कारण तो नहीं बन रहा । ऐसा न हो इसलिये मैं आजकल सब के साथ बाहर जाने के ळिये होटल या रेस्टोरन्ट में खाना खाने के लिये हाँ भी भर लेती हूँ । होटल या रेस्टोरन्ट में दिव्यांगो के प्रवेश के लिये सुविद्या ना हो तो मैं कार मैं बैंठी बैंठी खाना खा लेती हूँ । इस तरह हम जीवन का आनंद प्राप्त करते है । व्यक्ति के जीवन का निर्माण करने में मम्मी-पापा, परिवार-जन और समाज प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप से अपना किरदार निभाते हैः अपना हिस्सा देते हैं । समाज की बात करुं तो सब से पहले मैं हमारे संपर्क में आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति अवं त्यौहारो का उल्लेख करना चाहूंगी । मैं सारे त्यौहार मना सकूं । इस के लिये पापा ने पूरी कोशिशें की है । पापा हमारी हाउसींग सोसायटी में त्यौहार का आयोजन कुछ इस तरह से करते हैं कि मैं उस का आनंद ले सकूं । हमारे घर के आँगन में भी गरबों का आयोजन किया जाता हैं । मैं उस वक्त आँगन में बैठकर गरबों का आनंद लेती हूँ । मुजे रंगों से एलर्जी होने के कारण पापा मुजे कभी धूलेटी खेलने नहीं देते । दीपावली के दिनों में भाई-बहनों के साथ मैं भी पटाखे जलाती हूँ । पापा तो हर वक्त साथ होते ही हैं । पटाखे जलाते वक्त वे मेरा खास तौर से ख्याल रखते हैं । अहमदाबादीओं के पतंगो के शौक के बारे में क्या कहूँ । यूं समई करीब करीब हर एक अहमदाबादी पतंगो के लिये दीवाना हैं । उत्तरायण यानि मकरसंक्राति के दिन पापा मुजे गोद में उठाकर छत पर ले जाते थे । पतंग उडाकर दोर मुजे पकडा देते थे । मैं फिर पतंग उडाने का आनंद लेती थी व हूँ । मुजे याद नहीं कि मेरी शारिरीक मर्यादाने किसी भी त्यौहार को मनाने में विघ्न डाला हो । ये सब इसलिये हुआ कि पापा ने मुजे समय दिया है । आज परिस्थितियां ये है कि लोगो के पास संपत्ति, साधन एवं सुविधाएं हैं । नहीं है तो बस समय नहीं है । जो वे परिवारजनों को, मित्रों को, रिश्तेदारों को दे सके । ये बडी चिंताजनक परिस्थिति है ।आज जब मैं मेरे लालन-पालन के बारे में सोचती हूः तब पता चलता है । माता-पिता अपने बच्चो के बारे में कितना कुछ करते हैं । क्या क्या कुरबानी देते है । अपनी इच्छाओं को मार देते हैं । अपने बच्चे को हँसाने के लिये खुद को रोना पडे तो रोते भी हैं । भगवान को किसने देखा है ? मेरे लिये मेरे मम्मी-पापा ही भगवान हैं ।
जैसे मुठी में से रेत सरकती हैः वैसे ही समय सरक रहा था । मैंने नौवीं कक्षा पास की । उस के बाद थी कक्षा दस । वो 1980 का वर्ष था । दसवीं के इम्तिहान राज्य के शिक्षा बोर्ड द्वारा ल्ये जाते हैं । मैं पढाई में तेजस्वी थी । लेकिन पापा को सब से डर सता रहा था कि मैं दसवीं के इम्तिहान कैसे दूंगी ? मुजे इम्तिहान देने कहाँ जाना पडेगा ? जहाँ जाना होगा । वहां मैं जा भी पाउंगी या नहीं ? नौंवी कक्षा तक तो पाठशाला में ही इम्तिहान देने थे । बोर्ड के इम्तिहानों में परीक्षार्थीओं की बैठक व्यवस्था बोर्ड तय करता है । मम्मी-पापा को एक ही चिंता सता रही थी कि अगर मेरा सीट नंबर उपर की मंजिलों पर हुआ तो क्या होगा ? उस पर अंक समस्या और थी । उन दिनों में एक दिन में दो विषयों के इम्तिहान होते थे । हां, आज एक बात जरुर महसूस होती है । उन दिनों में इम्तिहान हौना नहीं थे या नहीं लगते थे । आज ऐसा लगता है । वोर्ड के इम्तिहानों को एक हौवा बना दिया गया हैं । हाँ इतना जरुर होता था कि एक ही दिन में दो विषयो के इम्तिहान होने के कारण थोडी सी तैयारी ज्यादा करनी पडती थी । मेरी पाठशाला में तो मैं ग्राउन्ड फ्लोर पर स्थित कक्षा में बैठकर इम्तिहान दे सकूं । एसी व्यवस्था हो जाती थी । पर ये तो बोर्ड द्वारा लिये जा रहे इम्तिहान थे ।
मुजे चौथी मंजिल तक लेकर जाना यानि गिरनार चढने जैसा कार्य करना । चालीस पायदान चढना मेरे लिये चार सौ पायदान चढने के बराबर था । पापा मुजे लेकर इम्तिहान के तय समय से एक घंटो पहले ही मुजे परीक्षा स्थल पर पहुँच जाते थे । वो इसलिये कि मैं इम्तिहान कक्ष में वक्त पर पहुँच जाउं । उन दिनों में दो इम्तिहानों के बीच एक घंटे का विराम होता था । पापा मुजे सुबह लेकर नीकलते थे । दोपहर को वहीं इम्तिहान कक्ष के बाहर बैठ जाते थे । अचानक न जाने कब मुजे किसी चीज की जरुरत महसूस हो तब ? पापा तुरत हाजर हो जाते । अल्लादीन के चिराग की तरह । पहला इम्तिहान पूरा होने के समय रक मम्मी मेरे लिये चाय, पानी और नास्ता लेकर आ जाती थी । शाम को छह बजेः दूसरे विषय का इम्तिहान पूरा होने के बाद मुजे चार मंजिल उतरने में भी उतना ही समय लगता । जितना चढते वक्त लगता था । हाँ, इतना जरुर आसान था कि उतरते वक्त समय कम लगता था । हालांकि मेरे लिये तो दोनों बराबर हीथे । शायद उतरना ज्यादा मुश्किल कार्य था । ( पिन्क एवरेस्ट किताब में अतुल करवाल ने जिक्र किया है कि पर्वतो पर सबसे ज्यादा मौतें उतरने के वक्तदौरान होती है । इस के अनेक कारण हैः मगर सबसे महत्वपूर्ण कारण ये है कि उतरने वक्त लडखडाने शक्यता ज्यादा रहती है । शारिरीक संतुलन के बिगडने की सबसे ज्यादा संभावना उतरने वक्त ही रहती है । ) जब दिव्यांग व्यक्ति के लिये शायद संतुलन बनाये रखना ही सबसे मुश्किल होता है । सो मेरे पापा को मेरा ज्यादा झ्यान रखना पडता थान इन सब कार्यो में समयसूचकता के साथ साथ भरपूर धीरज चाहिये । क्योंकि अगले दिन भी दो प्रश्नपत्र इंतजार कर रहे होते थे । बोर्ड की परीक्षा, परक्षा-कक्ष चौथी मंजिल परः मेरी शारिरीक क्षमताओं का भी जैसे इम्तिहान लिया जा रहा था भगवान को लगा कि इम्तिहान को थोडा और कठोर किया जाय । सो उन्हीं दिनो पिरूयर्ड शुरु हुये । इस आकस्मिक परिस्थिति से मम्मी-पापा थोडे दुःखी जरुर हुये । पर किया क्या जाय ? उपाय क्या ? मुजे नीचे की मंजिल पर बिठाकर इम्तिहान लिये जाएं तो उत्तरवहयों के खो जाने का डर था। एसे में मेरा पुरा अंक वर्ष बिगडने का खतरा था । जो पापा को मंजूर नहां थाण छ दिनो की तपश्चर्या के बाद इम्तिहान पूर्ण हुये । खत्म हुये । अब प्रतिक्षा परिणाम की । आखिरकार हम सबकी महेनत सफल हुई । मैं 63% के साथ उत्तीर्ण हुई । घर में प्रत्येक सदस्य की आँख खुशियो से छलछा गई ।
परिणाम के बाद नया सवाल खड़ा हो गया । अब मुजे सायन्स कोमर्स किस क्षेत्र में जाना चाहिये । सायन्स मेरे लिये थाडी मुश्किल खडी कर सकता था । उस के नियमित तौर पर स्कुल जाना जरुरी था । ज्यादा पढ़ना जरुरी थाः जो मेरे लिये मुश्किल था । पापाने मुजे स्पष्ट तौर पर कह दिया कि अगर आगे पढ़ना हो तो कोमर्स लेना पडेगा । वरना अभ्यास बंद । मुजे अभ्यास तो जारी रखना ही । पापा की बात भी सच लगी की सायन्स पढने में मुजे तकलीफ हो सकती है । मैने पापा की बात मान ली । कोमर्स के क्षेत्रमें दाखिला ले लिया । कोमर्स का केन्द्र होता है एकाउन्टः जो कि मेरे लिये एकदम नया था । मैं एकाउन्ट को अच्छी तरह समझ सकूः अच्छी तरह पढ सकूं इस के लिये पापाने पर्सनल ट्युशन रखा दिया । इस तरह शिक्षा हासिल करने का दौर आगे बढा ।
कक्षा 11 में आसानी से उतीर्ण हुई । 12 वी की पढाई शरु हुई । जो विद्यार्थी 12 वीं कक्षा में होते हैं । उनके लिये लोग मजाकनें कहते हैं इस का बारहवां कब पूरा होगा । ( दरअसल बारहवां एक मरणोपरांत विधि है । जो की जाती है ।) फिर से बोर्ड के इम्तिहान आन पडे । साथ में अनगिनत तकलीफे तो थीं ही । हालांकि तब तक मैं तकलीफो की आदि हो गई थी । मैंने फिर 63% प्रतिसत प्रथम वर्ग के साथ बाराहवीं कक्षा भी पास की । यूं पाठशाला के दिन पूरे हुये ।
अब कोलेज में दाशिले का सवाल खड़ा हो गया । कौन सी कोलेज में दाखिला लूं ? अहमदाबाद की क्षेष्ठत्तम कोलेज के द्वार मेरे लिये खुले थे । लेकिन पापा ने कहा जहा तुम्हारी सहेली को दाखिला मिलेगा । तुम्हारा दाखिला भी वहीं करवाउंगा । वो इसलिये कि अभ्यास तथा अन्य जानकारियां हासिल करनी सरल रहे । मेने मेरी सहेली प्रीती के साथ सी.यु.शाह कोमर्स कोलेज में दाशिला लिया । कोलेज के पहले दिन मैने जिद पकडी कि मुजे कोलेज जाना है । पापा मुजे लेके कोलेज गये तो पता चला कि मेरी कक्षा तो पांचवी मंजिल पर है । पापा आचार्य से मिले मेरी शारिरीक मर्यादा के बारे में उन्हें बताने के बाद विनंती की मेरे लिये ग्राउन्ड फ्लोर पर ही व्यवस्था कर दे ।
पापा की विनंती का आचार्य पर कोई असर नहीं हा । उन्होंने स्कुल का लीवींग सर्टिफिकेट वापस दे दिया । ये कहते हुये कि आप अपनी बेटी के कीसी दूसरी कोलेज में दाखिला दिलवा लें । आचार्य आचार्य कम और प्रिन्सिपल ज्यादा लगे । आचार्य के निर्दयी व्यवहार के विरुध्ध पापा ने भी जिद पकड ली । आखिर पापा किस के थे ? पापाने आचार्य को स्पष्ट शबदो में कहा मेरी बेटी इसी कोलेज में पढेगी । वो रोज कोलेज नहीं आ सकेगी । मगर इम्तिहान देने आयेगी । इस तरह पापा की हिम्मत और धुन के कारण में कोलेज का अभ्यास पूर्ण कर सकी । स्नातक बनी 63% के साथः कोलेज में सबसे ज्यादा प्रतिशत लेकर आई । मुजे गुजरात सरकार द्वारा आगे का अभ्यास जारी रखने के लिये 1500/- रुपये की स्कोलरशीप मिली । उसके बार पैर बिना के मेरे कदमोने दौडना शरु किया । मेरे शिक्षा रुपी तरकश में एक के बाद एक डिग्रीयां जिडती गई । एम.कोम, एल.एल.बी, एल.एल.एस, एम.सी.ए, एम.बी.ए जैसी डिग्रीया हासिल की । आज तक 18 डग्रीयां हासिल कर सकी हूँ । मैं इन डीग्रीयो को हासिल करने का सारा श्रेय पापा को देती हूँ । एक तरफ जहां सामान्य बच्चे को शिक्षा दिलवाने में माता-पिता को लोहे के चने चबाने पडते है । वहां दूसरी तरफ दिव्यांग होते हुये भी पापा के अभूतपूर्व सहयोग के कारण इतनी सारी ड्ग्रीया हासिल कर सकी । मैं सारा श्रेय पापा को देती हूँ । सामान्य बच्चे को शि7 दिलवाने में, एक दो डिग्री दिलवाने में माता-पिता को कई पापड बेलने पडते हैं । वहाँ मेरे पापाने मुझे इतनी डिग्रीयां दिलवाई है कि मैं दिव्यांग होते हुये भी डिग्रीयां हासिल करने का रिर्कार्ड वना सकी ।
जीवन में प्रगति के साथ साथ मेरे सपोर्टिंग साधन भी बढने लगे । कसरत के साधन, संगीत के साधन, केलीपर्स, काखघोडी, सायकिल, व्हिलचेर, ये मेरे साथी बन गये । साथ ही साथ मेरे तीन भाई-बहन, मम्मी और पापा । अब घर छोटा पडने लगा था । पापाने मेरे लिये सहूलियत रहे ऐसा घर खरीदा । यानि फिर नया घर खरीदा । रो-हाउस खरीदा । पापाने जीवन के सारे आयोजन हंमेशा मुजे झ्यान में रखकर, मेरी सहूलियतो के अनुसार ही किये हैं । मेरी जरुरतो के अनुसार घर बदलते गये ।
यहां मुजे दो-लीन बातों का जिक्र करना करना जरुरी लगता है । अहमदावाद में1982 में कौमी दंगे हुए थे । पूरा अहमदाबाद दंगो से ग्रसित था । वैसी तनावपूर्ण परिस्थितीयों में भी पापा मुजे कसरत करवाने के लिये लेकर जाते थे । आज ये पढकर सोचती हूँ कि क्या दंगो के दौरान दो-चार दिन कसरत करने के लिये नहीं जाती तो क्या फर्क पडनेवाला था । मगर पापा द्रढ निश्चयी थे । पापा के लिये ढन के जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण था । मेरा कसरत करना । इसवीसन 2000 में अहमदाबाद में एक दिन असा था । जब चौबीस घंटे मूसलाधार बारिश हुई थी । उन दिनो में हम सेटेलाईट इलाके में रहते थे ।
हमारे घर के नीचले हिस्से में बारिश का पानी जमा हो गया था । लेकिन पापा मुजे पहले ही पहसी मंजिल पर ले गये थे । उस दिन घर के बाकी सदस्य भी जरुरी सामान लेकर पहली मंजिल पर आ गये थे । दूसरे दिन पानी थोडा कम होने पर मुजे मेरे काका के घर भेज दिया गया । घर में बारिश का पानी भर जाने के कारण घर को काफी नुकशान पहुचाँ थआ । 2001 में हुये भूकंप बाद कुछ समय तक आफटर शोक आते थे । उन दिनों में पापाने मुजे सूचना दे रखी थी । मुजे हंमेशा बूट पहेने रहने की । न जाने कब कंपन हो और हमें भागकर घर से बाहर जाना पडे । बल्कि कहना चाहिये कब घर से बाहर भागना पडे । एसी विकट स्थितियों में मैंने बूट पहन रखे हो तो उतना समय बचे । अलबत्ता भूकंप के वो दो-चार पल बीताना भी एक युग बीताने जितना लंबा कार्य होता था । भूकंप जैसी आकस्मिक परिस्थितिमें मुजे में लेकर दौडना सरल कार्य नहीं था । मेरे लिये घर के सदस्यों ने कार में शरण ली थी । पापाने आकस्मिक परिस्थितियों में हमेशा मेरा ख्याल किया हैः मुजे सँभाला है । पापा के वर्तन को देखकर मेरे परिवारजन भी हंमेशा मुजे संभालने के लिये प्रेरित हुये हैं । कभी किसीने पीछे हठ नहीं की ।
शरीर में पोलियो की असर कुछ कम हो रही थी । मेरे परिवारजनों के कठोर परिश्रम के कारण ये संभव हुआ था । मेरे शारिरीक विकास में मुजे भाइ-बहनों से पूरा पूरा सहयोग एवं मदद मिल रही थी । समय के साथ पापा का व्यवसाय भी विस्तृत होता गया । व्यवसाय में पापा जो महेनत कर रहे थे । वो असर दिख रही थी । मम्मी भी पापा को पूरी तरह बल्कि हर तरह से सहयोग दे रही थी । भाई भी पापा के कंधे से कंधा मिलाकार साथ देने लगा था । पापा को लगा की अबतक मैंने परिवार के लिये ज्यादा कुछ किया नहीं है । लेकिन अब मेरे पास भगवान का दिया सबकुछ है । लक्ष्मीजी की कृपा है तो परिवार के रहने के लिये बहेतरीन घर की व्यवस्था करनी चाहिये ।
पापा ने रो-हाउस बेचकर बँगला खरीदा । नये और स्वतंत्र बंगले में मेरे भाईने मेरे लिये आवश्यक तथा कुछ और सुविद्याएं उपलब्ध करवा दी । भाई की आर्थिक स्थिरता व समृध्धिने उसे नया बँगला बनाने के लिये प्रेरित किया । उसकी इच्छा को मैंने बल दिया । मेरा कामकाज भी बढा था । मैं घर में वहीलचेर पर में बैठकर आसानी से धूम फिर सकूं । इसलिये भाइ बड़ा बँगला बनवाया ।
सामान्यतया से समझा या कहा जाता है कि व्यक्ति घर बनवाने के बाद घर से बंध जाता है । लेकिन हमारे किस्से में विपरीत घटना घटी । मेरे सतत प्रवृतिशील स्वभाव के कारण घर के अन्य सदस्य घर की चौखट के बाहर जाकर समाज के साथ जुडे ।
हम सब हर्षोल्लास से जी रहे थे । अब माता-मिता के लिये सुख की घडियाँ आई थी । लेकिन सुख को भी किसी की जबर लग गई । या शायद परमात्मा को हमारी इर्षा हो गई । 1989 का वर्ष हमारे जीवन में एक मोड लेकर आया । उस वर्ष जून महीने की 11 तारीख को मेरी मम्मी हम सवको छोडकर अनंत की यात्रा पर निकल गई । हम बिन माँ के बच्चे हो गये । ऐसा लगा जैसे सावन सूख गया । पापा अकेले हो गये । वो ना तो रो सकते थेः मा ही किसी से कुछ कह सकते थे । स्वाभाविक था कि मम्मी को सब से ज्यादा चिंता मेरी होती थी मम्मी के जीवन के अंतिम पलो में पापाने मम्मी को वचन दिया था कि आज के बाद मैं दर्शिता को हंमेशा कलेजे से लगाकर रखूंगा । पापाने वतन निभाया भी है । मम्मी के परलोकागमन को 28 वरेष हो गये है । पापा भी 85 के हो गये हैं । लेकिन आज भी उनकी जिम्मेदारियो की सूचि में पहला क्रम मेरा हैं ।
चार-चार जवान बेटियो और बेटे की जिम्मेदारीः बहुत बडी जिम्मेदारी पापा के सिर कर आ गई । वो कहावत है ना हर घाव का मरहम समय बीतने के साथ साथ हम गहरे सदमे से धीरे धीरे बाहर आये । पापाने हम भाई-बहनों के लिये दोहरी जिम्मेदारी निभाई व आज भी निभा हरे हैं ।
1985 में भारत में टीवी का आगमन हुआ । पापाने जल्दी ही टीवी बसा लिया । मेरे भाई-बहन शायद दूसरो के घर जाकर टीवी देख लेते । लेकिन मैं 1 मैं कहाँ जाउंगी ? यही सोचकर पापा टीवी ले आये । पापा हमेशा यही सोचते कि में खुश रहूं तो मेरे साथ घर के और सदस्य भी खुश रहेंगे ।
मेरी बहनो की उम्र भी शादी के लायक हो गई थी । उन के लिये योग्य पात्र ढुंढकर पापाने उन की शादियाँ की । वे अपने संसार में व्यस्त हो गई । भाई की भी शादी की । हमे संस्कारी और गुणवान भाभी मिली । मुजे तो ऐसा लगाः जैसे कि मुजे चौथी बहन मिली । सामान्यतः ऐसा होता है कि भाभी के आने के बाद भाई के वाणी-व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है । मगर मेरे घर में ऐसा नहीं हुआ । भाभी के आने से जैसे हमारी जिंदगीरुपी सोने में सुगंध मिली । हमारा घर आपसी प्रेम और भाईचारे से महक रहा था । मेरी शारिरीक मर्यादाओ का भाभीने सहज स्वीकार किया । भाभी पापा व भाई-बहनों से ज्यादा मेरा ध्यान रखने लगी । मुजे भाभी के स्वरुपमें एक सखी मिली ।
अब तक मेरे व्यक्तित्व के विकास में पापाने सबसे ज्यादा योगदान दिया था । मैं यहाँ मम्मी की विदाय के बाद की बातकर रही हूँ । भाई-बहन भी बडे होने के बाद वे स्थिती को बेहतर तरीके से समझने लगे थे । उन्हे मेरी परिस्थिती व मेरी शारिरीक मर्यादाओ का एहसास होने लगा था । मेरे लिए हर व्यक्ति खडे पैर तैयार रहती थी । भाई मेरे लिये जैसे कि मेरे पैर बन गया था । भाभी भी भाई-बहनों की तरह मुजे मदद करने के लिये तैयार रहती । वो मेरे प्रत्येक छोटे-बडे कार्य और प्रवृत्ति में रस लेने लगी थी । मेरी प्रगति के लिये मेरा पीठबल बनने लगी थी । मैं ऐसा कहूँगी कि भाभी के आगमन के बाद मेरी टीम में एक मजबूत साथीदार जुडा था । मम्मी के अवसान के बाद मैं हताशा में न घिर जाउः इसलिये पापा मुजे अपने साथ कसरत करने ले जाते थे । वहाँ अपनी ओफिस ले जाते । वहाँ मुजे चाय-नास्ता करवाते और हिसाब लिखना सीखाते थे । पापा ये सब इसलिये करते थे कि मेरा समय व्यतीत हो, वो मेरे साथ रह सके और मुजे अनुभन मिले एवं कुछ नया सीखूं । मुजे एकान्ट का ळिखने में नजा आने लगा । धीरे धीरे मैं एकाउन्ट लिखने में विशेषज्ञ होने लगी । आज पापा तो व्यापार से न्वृति ले चुके हैं । लेकिन भाई एकाउन्ट का सारा कार्य मुज से ही करवाता हैं । मेरे ट्रस्ट का एकाउन्ट भी मैं ही लिखती हूँ । पापा के साथ ओफिस के बाद मुजे बेंक से किस किये जानेवाले आर्थिक व्यवहारो का पता चला । समझ में आया कि बेंक से किस आर्थिक आर्थिक आदान-प्रदान किया जाना चाहिये । चेक लिखना, चेक के द्वारा पैसे लेना जैसे व्यवहार मैं सीखने लगी । जो आज मुजे मेरे ट्रस्ट का एडमिनीस्ट्रटीव कार्य करने में बहुत उपयोगी हो रहे है । मैं शाम को भाई के साथ वापस घर जाती थी । पापा ओरिएन्ट कलब में दो घंटे तक अलग अलग प्रवृतियों को समय देते थे । वहाँ उनका मित्रो से मिलना जुलना होता था । मित्रो से मोज-मस्ती करने के कारण मम्मी गँवाने का गम थोडी देर के लिये ही सही पर कम हो जाता । मम्मी के जाने के बाद मेरे व्यक्तित्व में एक बहुत बड़ा शुन्यावकाश पैदा हुआ है । स्वाभाविक था कि दिव्यांग होने के कारण मैं मम्मी से भावनात्मक रुप से ज्यादा जुडी हुई थी । हालांकि मम्मी के लिये सब बच्चे एक समान होते हैं । मगर, माता की विदाई के बाद जो शुन्यावकाश जिवन में उत्पन्न हुआ था । वो तो....
मैं आज जो कुछ भी हूँ या मुजे जीवन में जो कुछ भी मिला है । उसमें मेरे पूरे परिवार का योगदान अमूल्य है । मैं जब परिवार से बाहर समाज में नजर घुमाती हूँ तो लगता हैं । पापा जैसे पापा मिलना मेरा अहोभाग्य है । मुजे जैसे परिवारजन मिले है । वैसे परिवार सौभाग्य से मिलते है । मुजे गर्व है कि मैं एसे परिवारजनों के साथ रहकर राष्ट्रीय सिद्रि के कीर्तिमान स्थापित कर सकी ।
पापा ने हम भाई-बहनो के लालन-पालन में किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं रखा था । सबको उच्च शिक्षा दिलवाई । हम सब आर्थक द्रष्टि से स्थिर रहें, मजबूत रहेः एसी व्यवस्था भी की । मेरी बडी बहन संगीता को भी B.Pharm तक शिक्षा दिलवाई । दूसरी बहन ममता को B.pharm के बाद पी.एच.डी. भी करवाई । भाईने इंजीनीयर की पढाई की । छोटी बहन को बी.एस.सी तक पढाया । हम जब पढ रहे थे । तब पापाने कितनी मानसिक, शारिरीक मानसिक कष्टो का सामना किया होगा ? उन सारे कष्टो को ताक पर रखकर हमे इस योग्य बनाया कि हम जमाने से, संकटमय परिस्थितियों से लड सके । उन का सामना कर सके । हमें योग्य मुकाम तक पहुँचाने के बाद ही पापाने चैन की साणस ली होगी ।
अब पापा मन से स्वस्थ हुये थे । आर्थिक परिस्थिती अच्छी थी । समाज के लिये कुछ कर सकने लायक हो गये थे । इ.स.2004 में पापा की अहमदावाद शहर की ओरिएन्ट कलब के सेक्रेटरी पद पर नियुक्ति हुई । घर में मेरे अलावा बाकी सब अपनी रोजमर्रा की प्रवृत्तियो में व्यस्त रहते थे । सची मैं अकेली । मम्मा के दिये वचन के अनुसार वे मुजे अकेली छोडकर कहीं भी जाना नहीं चाहते थे । कलब की प्रवृत्तियों को देखकर मेरा मन भी बदल जायेगा । ये सोचकर पापा मुजे अपने साथ कलब ले जाने लगे । कलबमें नित नये आयोजन होते थे । कलब में जाने से मेरे जीवन मैं जैसे कि एक नये प्रकाश की शरुआत हुई । मेरे सामने एक नई दिशा खुलीः जो साहित्य की थी । मेरी भावनाओ को शब्द मिले ।मैं अछांदस कविताएं और गजलें लिखने लगी । मुजे जैसी आती थी वैसी रचनाएं करने लगी । मुजे प्रोत्साहन मिले, आनंद मिले इसलिये मैंने कविताओं और गजलो की प्रकाशित करने का सोचा । ऐसा करने के लिये भी मुजे किसी ने सलाह दी थी ।
पापा में इतनी हिम्मत, हौसला और जज्बा थाः कि मुजे प्रसन्न करने के लियेः रखने के लिये वे प्रवाह की विपरीत दिशा में तेरने के लिये भी तैयार थे । उन्होंने हंमेशा ये प्रयास किया किः मेरी मानसिक क्षमता इतनी विकसीत हो जाए की वो मेरी शारिरीक विकलांगपने को ढक दे । मुजे शहर में आयोजित होनेवाले कवि संमेलनो और मुशायरो में लेकर जाने लगेः बल्कि मैं गीत, गजल, कविता को और ज्यादा गहराई से समझ सकूं । अहमदाबाद में एक अच्छी बात ये है कि यहाँ सतत साहित्यिक प्रवृत्तिं का आयोजन होता रहता है । शहर के प्रसिध्ध पुस्तकालय माणेकलाल जेठालाल पुस्तकालय में प्रत्येक शनिवार शाम को साहित्यचोरा का आयोजन होता है । जिस में कविगण अपनी अपनी रचनाओं का पठन करते है । कभी कभी ऐसा लगता है कि मेरे व्यक्तित्व का निर्माण करने के यज्ञमें पापाने अपने व्यक्तिगत जीवन की आहुति दे दी है । पैर न होने के बावजूद मैं विख्यात कहावत के अनुसार अपने पैरो पे खडी ङूँ । जहाँ जाना चाहती हूँ । अकेली जा सकती हूँ ।
शिक्षा हासिल करने के बाद मैंने मेरी मनमरजी के अनुसार प्रवृत्तियां की है । मैंने सेवा, आवाज, अंधजन मंडल, बी.एम.इन्टीट्युट में नोकरी की है । यूं कि मैं एक व्यवसायी की हेटी थी । इसलिये सोचती थई । मुजे भी नौकरी नहीं व्यवसाय करना हैं । मेरे इस विचार को पापाने समर्थन दिया । मैंने एक्सलेन्ट रेडियो में केसेट का व्यवसाय किया । ओम एंटरप्राईज में डाईज और केमीकल का व्यवसाय किया । ओम प्रकाशन में कविता, गजलो की किताबो का प्रकाशन और बेचने का व्यवसाय किया । मेरी इन प्रवृतियों में अगर पापा कभी किसी कारणवश साथ ना सकते तो किसी परिचित और विश्वासु व्यक्ति को साथ भेजते । जीवणभाई, सनतभाई, आचार्य, भामिनी बहन, सुनील, रहीश परमार, भरतभाई, यतीनभाई, लक्ष्मणभाई, में से किसी को भेजते । वो भी एक नहीं बल्कि दो व्यक्तियों को साथ भेजते । मैं जब से खाना होती । तब मुजे याद दिल्लाते कि पानी बोतल ले ली, नास्ते का डिब्बा ले ल्या, मोबाईल ले लिया ? दिन में दो से तीन बार फोन करके मेरा हालचाल पूछते थे । जब मैं शाम को घर पहुँचती थी । तब मुजे गेलेरी या फाटक के पास मेरा इंतजार करते ही मिजते है । पापा हंमेशा भगवान को प्रार्थना करते है कि प्रभु मेरी बेटी को कभी कोई तकलीफ मत पहुँचाना ।
मैने 2008 में अपंग मानव मंडल ( अहमदावाद में दिव्यांगो के लिये सेवाकार्य करनेवाली संस्था का नाम है ) सेवाकार्य शरु किया । इस कार्य के लिये भी पापा ही ने प्रेरणा दी थी । पापा के एक मित्रने मुजे ओरिएंट कलब के किसी कार्यक्रम में देखाः मुजे मिलेः मुजे मिलने के बाद पापा से बातचीत की दूसरे ही दिन पापा ने मुज से कहा धर मैं बैठे रहने से अच्छा है । तू तो कोई काम कर । मुजे तेते पैसो की जरुरत नहीं हैं पर तू अगर किसी काम से जुडेगी तो तेरा समय भी कटेगा और तुजे कुछ नया सीखने को भी मीलेगा । इस बात की गहराई और महत्व का मुजे आज पता चलता हैं । मेरे पापा कितनी दूर की सोचते थे । एक दिव्यांग बेटी घर में बैठी रहती तो पापा को फर्क नहीं पडता थआ । लेकिन मैं घर से बाहर नीकलूं, प्रवृति में व्यस्त रहूँ । तो मेरे लिए प्राणवायु के समान था । इस से भी विशेष ये कि मेरा आत्मगौरव कायम रहे । वो महत्वपूर्ण था ।
मम्मी व पापा दोनो ने तय किया था कि मैं स्वनिर्भर बनुं । शारिरीक व मानसिक दोनों स्तर पर किसी के आधीन न रहूँ । पापा की सलाङ के अनुसार अपंग मानव मंडळ जाना शुरु किया । शुरु शुरु मैं कुछ वर्षो तक पापा ही मुजे ओफिस तक पहुँचाते । वहाँ कार्य करते करते ही एक दिन मन में विचार आया की मुजे एक एसी संस्था की स्थापना करनी चाहिये । जिस के द्वारा मैं गुजराती कहावत फूल नहीं तो फूलनी पांखडी के अनुसार जितनी मुजसे हो सके उतनी दिव्यांगो की मदद कर सकूं । मैने 2009 में इस विचार को कार्यान्वित किया । दर्शु केर चेरिटेबल ट्रस्ट नाम को रजिस्टर करवाया । ट्रस्ट का कामकाज शुरु किया । इस ट्रस्ट के एक ट्रस्टी के रुप में पापाने काफी वडी धनराशि अनुदान में दी हैऩ इस ट्रस्ट के अलावा सामाजिक हित के अन्य कार्यो के लिये भी पापा की एवं घर के अन्य सदस्यो से मदद मिलती रहती है । ट्रस्ट द्वारा आयोजित विरमगाम मेडीकल चेकअप केम्प, मोडासा में साधन सहाय केम्प या अहमदाबाद में आयोजित होनेवाले केम्प सब पापा की निगरानी में होते है । विरमगाम केम्प पापा के मित्र शरदभाई कोठारी तथा मनुभाई पंडया की मदद से आयोजित होता हैं ।
आज जब मैं पापा के जुडे स्मरणो को कलमबध्ध करने का कार्य कर रही हूँ । तब मन में एक विचार एक प्रश्न बार-बार उभर रहा है । वो ये कि पापाने कैसे सबकुछ सँभाला होगा ? जीवन के विभिन्न मोर्चो पर कैसे लडे होगे ?
आज भी जब बेतियों को घर में या समाज में योग्य स्थान, पूरा मान-सन्मान नहीं मिलता । पापा ने कैसे एक दिव्यांग बेटी के जीवन को सींचा होगा । मैं पापा के भगीरथ प्रयास को कोटि कोटि वंदन व नमन करती हूँ ।
पापा की वर्षो की साधना तपस्या का एक फल मुजे 3 दिसंबर 2013 के दिन मिला । जब मुजे राष्ट्रपति एवार्ड मिला । एवार्ड हालांकि मुजे मिला है । लेकिन ये एक टीमवर्क का कार्य है । जैसे क्रिकेट मेंच में ट्रोफी जीतनेवाले कप्तान को दी जाती है । लेकिन जीत पूरी टीम के प्रयासों से मिलती है । उसी तरह राष्ट्रपति एवार्ड चाहे मुजे मिला हो । मगर इस के लिये एक टीं है । जिस के कारण ये घटना घटी । मेरी माता के आर्शिवाद, पापा, भाई-भाभी, बहन-बहनोई, उनके के बच्चे, रिश्तेदार, मेरी फिजियोथेरापीस्ट लताबहन, चचेरा भाई निलेषभाई, राकेशभाई, उमंगभाई, हरीशभाई, र्डा.पुष्पाबहन, नटुभाई, मेरे संगीत शिक्षक चंद्रकांतभाई एवं नयनभाई, मेरे मित्र रघुवीरसिंह, रसेषभाई, नीतीनभाई, अनिताबहन, और रमेशभाई, प्रीतीबहन, भावनाबहन, भामिनीबहन, पर्तिक, रवि चावडा, राज, दक्षाबहन, लीनाबहन, महेशभाई, इनाबहन, बतूलबहन, लीनाबहन त्रिवेदी, हरेन्द्र रावल तथा कवि मित्रो के साथ एवं सहकार से मुजे ये अनमोल उपलब्धि प्राप्त हुई है । सेवाकीय प्रवृत्तियों में मुजे सब से ज्यादा साथ-सहकार क्षितीजभाई, कुमुदबहन, मेहरबहन, पुनानी साहब, इलाबहन भटृ एवं इलाबहन पाठक का मिला है ।
पापाने मेरी प्रत्येक प्रवृति में गहरा रस लिया है । ऐसा कर के उन्हो ने मेरे जीवन को आसान बनाया है । 1965 से लेकर आज 2017 के आज के दिन तक फिजियोथेरापी की कसरत की छुटी रखी है । कोई भी व्यक्ति दिव्यांग व्यक्ति की सेवा-चाकरी, दवाई, इलाज करके थक सकती है । मगर मेरे पापा नहीं थके है । मेरे मम्मी-पापा ने सारी व्यवस्था इतने सुंदर तरीके से की है कि जीवन से पहले दिन से भाई-बहनोः और भाभी ने मुजे फूलो की तरह सँभाला है । मुज जैसी दिव्यांग बेटी के जीवन को निखारकर समाज के सामने एक लाजवाब उदाहरण पेश किया है । मम्मी व पापा ने साबित किया है कि पापा को बेटीयां ज्यादा प्यारी और लाडली होती है । आज भी जब कीभी पापा मुजे अपंग मानव मंडल तक छोडने के लिये आते है । तब मुजे में जो मांगुः यानि विफर, केडबरी या कोई और पदार्थः वो तुरत ही मुजे दुलाते हैं ।
प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चो का पालन-पोषण करते वक्त, उस के जीवन का निर्माण करते समय जो भी शक्य हो । वो सबकुछ करते है । मेरे पापा मानते है कि जीवन में शिक्षा का महत्व कुछ विशेष है । वेखुद भी स्थान में डीग्री में भी तक पढे है । इसलिये शिक्षा के महत्व को अच्छी तरह से जानते हैं । मैं शिक्षित हो सकूं इस के लिये पापा ने कई तकलीफो उई है । मुजे उठाकर पाठशाळा की सीडीयां चढते थे । उतरते भी थे ।
ये क्रम पांचवी कक्षा तक चला था । उस के पापाने मुजे सीडीयां चडना व उतरना सीखाया । हालांकि इसके बावजूद पापा को मेरे साथ रहना पडता था और वो रहते थे । कई बार मैं सोचती हूं । मेरे पापा एक शिल्पकार है । शिल्पकार जैसे मूर्ति का निर्माण करता है । पापाने भी मेरे व्यक्तित्व का निर्माण किया है । राख में से खिलोंने बन सकता है । लेकिन क्या कभी कीसी लाश को जीवंत होते देखा है ? आप का जवाब होगा ना । लेकिन मेरे मम्मी पापाने लाश को जीवंत किया है । इस की जड में पापा का जीवन के प्रति का नजरिया है । पापा का जीवन के प्रति का अभिगम और मिज़ाज दोनो फाइटर है पापा मानते है कि मसीब में जो लिखा है । वो तो होगा ही । जब परिस्थिति बदलनेवाली ना हो तब
कर्मयोगी पापा
परिस्थिती का स्वीकार कर के सी परिस्थती में हल निकालने का प्रयत्न करना चाहिये । मगर व्यक्ति अपने आप पर विश्वास रखता है तो जो वो चाहे वही कर सकता है । सच्ची निषठा और प्रमाणिकता हमेशा सफलता और शांति देते हैं ।
मेरी प्रगति और विकास में भाई स्वप्निल, भाभी दीपा, बहेन संगीता, दीपाली, और ममता हंमेशा मेरे साथ रहे हैं । जीवन के संघर्ष में सदा मेरा साथ दिया है । इस के साथ मेरे बहनोई हितेषभाई और आशिषभाई भी हमेशा मदद करने के लिये तैयार रहते है । बच्चे राधिका, मानव, स्मिता, अनेरी, आश्वी भी मेरा खयाल रखते है । मेरा सन्मान करते हैं । मुज से बेइंतहा प्यार करते हैं । उन का साथ अगर मुजे रोजमर्स के कार्यो में ना मिले तो मेरा जीवन बहुत ही मुश्किल हो जाए । आज मैं जो कुछ भी हूः दिव्यांग होने के बावजबद मेरे सपनो को हासिल कर सकी हूँ तो इस का श्रेय में मेरे सारे परिवारजनो, मो और शुभेच्छको को देती हूँ । मेरे कदमो को अगर पंख लगे हैः वे उंचे आकाश में उड सके हैः तो सिर्फ मेरे महान महानतम पापा के कारण ।
मेरे पापा मुजे छोडकर कहीं नहीं जाते थेः आज भी नहीं जाते । मंदिर जाना हो, या रिश्तेदारो के घर, या फिर शहर से बाहर कहीं जाना है । पापा मुजे कभी छोडकर नहीं गये । मुजे याद नहीं आता कि घर का कोई भी सदस्य मुजे छोडकर घूमने के लिये या कहीं छुटीयां बीताने के लिये गये हो । एक दिव्यांग के लिये परिवार ने जो कुछ भी किया है वो सेल्यूट के हकदार है ।
मेरे मम्मी-पापा ने मुजे हर तरह की तालीम दी है । खाना पकाना भी सीखाया है । मैने कई बार मेरे हाथों से भोजन बनाकर मम्मी को खाना खिलाया है । हालांकि अब भाभी एवं बहनों के होने के कारण मुजे खाना पकाने की जरुरत नहीं रहती । लेकिन कभी कभार मैं मेरे हाथ का बना खाना पापा को खिलाती हूँ । जब कभी मैं और मेरा भाई या मैं और पापा घर पे अकेले होते हैः तब मिलजुलकर खाना पकाते हैं । खाना पकाने के बाद के प्रेम से भोजन करते हैं । साथ भोजन हैं । पापा खाने के शौकीन है । पापा मिर्चीवडे, हलवा, लाप्सी, दूधपाक, तुवेर की खीचडी, बेसन के पूडले, दाल-ढोकली, गांठीया, फाफडा, पूरण पोळी वगैरह बनाते हैं । पापा अब उम्र के कारण खाने में काफी परहेज करते है । सुबह दाल-चावल, सब्जी-रोटी का सादा खाना खाते हैं । शाम को भी खीचडी जैसा सुपाच्य पदार्थ लेते है । पापा वस्त्रो के भी शौकीन है । वस्त्रो के साथ वस्त्रो के अनुरूप घडी भी पहनते है । मेरी देखभाल करने मेः लालन-पालन करने में पापा ने अपने शौक को कभी प्राथमिकता नहीं दी । इन दोनो शौकने पापा के जीवन में रोमांच और रसरुचि को जीवंत रखा है ।
आज समाज में एसी परिस्थितीयां खडी हो चुकी है कि बेटी को बचाने के लिये सरकार को योजनाएं बनानी पड रही है । विभिन्न अभियान चलाने पड रहे है । एसी परिस्थितीयों में दिव्यांग बेटी का इस तरह लालन-पालन करना की वोः अपनी शारिरीक अक्षमताओं को भूलकर अपने पैरो पर खडी हो सकेः वास्तव में एक कर्मयोगी ही कर सकता है । मैं आर्थिक द्रष्टि से स्वावलंबी बन सकी क्योंकि मेरे मम्मी-पापा ऐसा चाहते थे । मम्मी-पापा के कारण ही मैं स्नातक बनी । मैं स्नातक होने के बाद घर पे रहकर ट्युशन कर सकूं एसी व्यवस्था भी पापा-मम्मी ने ही की है । मैने करीब एक दशक तक बच्चो को पढाने का कार्य किया है । उस समय मिला अनुभव मुजे काम आया है ।
2015 में दैनिक भास्कर द्वारा मुजे वुमन प्राइड एवार्ड के लिये मेरा चयन किया था । एवार्ड समारोह का आयोजन मुंबई में हुआ था । तब मैं जिद करके पापा को अपने साथ ले गई थी । आज मैं गर्व से कहती हूँ एवार्ड समारोह में उपस्थित मुख्य अतिथीने सार्वजनिक तौर पर पापा को अभिनंदन देकरः मेरे करियर के दौरान मुजे विभिन्न सामाजिक संस्थाओ और सरकार द्वारा विविध प्रकार के मान-सन्मान-पत्र तथा प्रशस्तिपत्र मिले हैं । जिन्हे में अपने प्यारे पापा को समर्पित करती हूँ । अलबत्ता परमपिता परमेश्वर द्वारा मिजे मिला सर्वोत्तम एवार्ड मेरे प्यारे पापा है. ।
***
माँ
सुख दुःख में हमेशा हँस्ती है माँ
रात और दिन सदा हँस्ती है माँ
गीले खुद सोकर, सुखे में सुलाती
बारह महीनों सदा सदा हँस्ती रहती माँ
तेरे बीना मेरी क्या है हँस्ती इस जग में
सुबह शाम हमेशा हँस्ती रहती माँ
माँ है तो जीवन हरा-भरा है मेरा
धूप छाँव सहकर भी हँस्ती रहती माँ
जीवन धन्य तेरे कारन हुआ
पूनम या अमास हँमेशा हँस्ती रहती माँ
करोडो शिक्षक भी तेरे बराबरी कर ना सके
रुठती, मनाती लेकिन सदा हँस्ती रहती माँ
मैं रोउ तो रोती मेरे संग
भगवान ने अपने बदले भेजी है माँ
घर से बाहर सदा हँस्ती रहती माँ
तेरे चरणों में रहा है मेरा स्थान हंमेशा
मेरे सामने सदा हँस्ती रहती है माँ
तेरी गोद में है स्वर्ग के सारे सुख
नकली गुस्सा कर के भी हँस्ती रहती माँ
मेरे ह्वदय की धडकनों में, साँस में,
भूलचूक होने पर सदा माफ करती है माँ
पूछे बगेरे सब जान लेती है
दोस्त बनाकर सदा हँस्ती रहती है माँ
खुले जो द्वार दर्शन कर लूं
तन और मन सबकुछ अर्पण कर दूँ
मन के मंदिर में मूरत बिठाकर
मानसी सेवा अर्चन कर दूँ
जीवन को समर्पित करके आज
माता-पिता का तर्पण कर दूँ
उपकारो का वर्णन कर दूँ
सारे जीवन को जी ने के लिये सखी
आँख
दूनिया की मोहमाया को छोडकर
चरणो में जीवन को अर्पण कर दूँ
त्याग मूर्ति का दुनिया में वर्णन कर दूँ
***
वंशवृक्ष
चुनीलाल – समरत बहन
नवीनभाई (नवनीतभाई), रेवाबहन, चीमनभाई, बाबुभाई,सविताबहन, नवीतभाई, कमलाबहन
बाबुभाई - मीनाक्षीबहन
संगीता-हितेषभाई, ममता, दर्शिता, स्वप्निल – दीपा, दीपाली-आशिषभाई
राधिका अनेरी, अश्वि माळव- स्मित
आखरी पुष्ठ पर
श्रीनाथजी का चित्र
( चित्र – दर्शिता बाबुभाई शाह )